कौन कहता है
कि तुम्हे अंधेरे में दिखाई नहीं देता?
क्या जन्मों-जन्म
इन अंधेरी कोठरियों में घूमते,
तुम इन अनंत वासनाओं को
अपने विस्फारित नेत्रों से
नहीं देख रहे?
और क्या नहीं मोहित हो रहे
आभासी प्रकाश की इस
चिर-उपस्थित-सी जगमग को देख?
इन स्याह सुरंगों में भ्रमण करते,
क्या तनिक भी संदेह होता है तुम्हे
रोशनी की यथार्थ अनुपस्थिति का?!
रात के अंधियारे में
उलूक तो विचरते हैं
अपना शिकार दूढ़ने को,
किन्तु तुम तो विचरते हो
मन की इन अंधियारी रातों में,
स्वयं अपना ही शिकार होने....
होते रहने को....!
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