ये मील के पत्थर कुछ राहत तो देते हैं, मगर ले जाएंगे मुझे मेरी मंज़िल तलक... -कौन कह पाएगा...! वो आवाज़ जो ख़ामोशी से निकलती है भीतर से कहीं, जानती है राज़ मेरी हर राह, हरिक मंज़िल का, ... यूँ ख़ामोश–सी क्यूँ है...!
ऐ राह बता केवल इतना, ये मोड़ सही या गलत मुड़ा; ‘गन्तव्य नहीं’- ये ज्ञात मुझे, कुछ लाभ अवश्य मुझको दिखता।
कुछ तो राहत है मिली मुझे- मैं जान रहा विश्राम नहीं, और यही बात कुछ सुख देती, जो बैठ रहा निष्काम नहीं।
शायद अब पथ में छाया है, कुछ दूर तलक, कुछ देर सही, कुछ इस छाया को बढ़ा चलूँ, बस मन में है संकल्प यही।
ना कड़ी धूप से मैं डरता, पर सतत निरन्तर कुछ मुश्किल, कुछ श्रमजल को मैं सुखा रहूँ, फिर शायद धूप नहीं बोझिल।
छाया में रहना सुखद लगे, पर नहीं ज़रुरत बन जाये, कि धूप ज़रा पथ में बिखरे और मन मेरा घबरा जाये।
तो राह मेरी तू कभी-कभी कुछ हल्की धूप चखा देना, या नहीं कभी फिर जीवन में, तू गर्म हवा आने देना।
ऐ राह क्यूँ इतनी चुप है तू, क्यूँ नहीं कोई उत्तर देती, तू भी तो राही किसी पथ की, क्या नहीं सशंकित तू रहती?!
क्यूँ नहीं भाव आते कोई, क्यूँ निर्विकार-सी रहती है, या पहना हुआ मुखौटा है, जिससे तू मुझको छलती है?
ना उत्तर दे तेरी इच्छा, मेरा मन कहे मैं बोलूँगा, अपने भावों के निर्गम को मैं हृदय-द्वार तो खोलूँगा।
तेरा स्वर नहीं सुनूँ लेकिन, मैं प्रश्न पूछ संतुष्ट रहा, बस एक बात तू दिल में रख, मुझ बिन तेरा अस्तित्व कहाँ!
मुझको तो वो सब जीना है, जो लिखा हुआ हर पग तुझ पर, आँखे जो मेरी गीली हो, तो अश्रु गिरेगा भी तुझ पर।
ऐ राह शांत अब मैं बैठा, कुछ समय के लिये बस केवल, जो प्रश्न पुनः मन में आया, पूछूँगा उत्तर फिर उस पल।