कविता…
मात्र एक कवि की स्व–अभिव्यक्ति या उसके पार भी कुछ और?
यूँ अनुभव होता है कि एक कवि की अंगुलियों और कंठ से अभिव्यक्त होने के बहुत पहले ही एक कविता का सृजन होने लगता है… कहीं गहरे… बहुत गहरे…!
उस गहरे भीतर में सरकते हैं कई विचार, आहिस्ता-आहिस्ता… उपजते हैं कई भाव, मद्धम-मद्धम… और वो विचार, वो भाव एक हो बन जाते हैं भावना के घने बादल और बरस कर भिगो देते है कवि का कोमल हृदय…!
वो कवि-हृदय घुल कर उस बरसते पानी में बह निकलता है शब्दों की बूंद बन…! वेदना की टीस की नुकीली सुई में वो पिरो देता है लय–ताल के रंगीन धागे और बना देता है उन शब्दों की सुगंधित माला!
ये सुवासित माला है अभिव्यक्ति उस कवि की!
महकते फूलों से गुँथी ये सुंदर माला कवि-मुख से ध्वनित हो फैल जाती है अस्तित्व में और आवृत्त करती है न मालूम कितने ही हृदय!
वो अनगिनत हृदय पा लेते हैं उस महकती माला में अपनी ही खुशबू, और उसके स्पर्शों में अपना ही स्पंदन!
और तब ही एक कविता कर पाती है अपना पूरा सफ़र और बन पाती एक प्राणपूर्ण जीवंत कविता…!
और यहीं होती है उस कविता की प्राण-प्रतिष्ठा और वो बन जाती है एक कभी न लुप्त होने वाली अमृत–वाणी!
इसका अर्थ हुआ कि कविता मात्र एक कवि की स्व-अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि है अभिव्यक्ति की एक वर्तुल धारा जो निकलती है अनंत के किसी अनजाने देश से अनहद की कलम से, कवि-मुख से मुखरित हो फिर समा जाती है उसी अनंत में स्थित अनगिनत हृदय-प्रदेशों में?!
तो प्रश्न है,
यदि दबी ही रह जाए कहीं कागज़ों में ये महकती माला, ना हो मुखरित कवि के सुरीले कंठ से तो क्या फिर नहीं रह जाएगी वो एक कविता!
निश्चित ही होगी वो एक कविता, मगर निष्प्राण–सी!
निश्चित ही कहा जाएगा उसे एक गीत, मगर एक प्राण-हीन, स्पंदनहीन गीत!
ना कर पाएगी तरंगित किसी और हृदय के वीणा के सुमधुर स्वर ही; ना ही बह पाएगी किसी विरही की वेदना के पिघलते आँसुओं के संग!
हो रहेंगे वंचित अस्तित्व के सात स्वर अभिव्यक्ति के उस सुरीले सुर से!
रिक्त रह जाएगा अस्तित्व का सतरंगी इंद्रधनुष अभिव्यक्ति के उस मनमोहक रंग से!
वो कविता तो होगी मगर होगी एक अधूरी स्पंदनहीन निर्जीव कविता… और बन जाएगी जन्म के साथ ही सुप्त और लुप्त होती एक मृत–वाणी!