जल-प्रलय

वासनाओं के वशीभूत हो जब मनुष्य अंधी दौड़ में लग जाता है,
तो लाभ और लोभ का अंतर तक भूल जाता है।
माँ प्रकृति हर पल हमारे पोषण और कल्याण के लिए
अपना सब कुछ अर्पित करती है—
बस, वह हमसे केवल थोड़ा-सा संयम और विवेक चाहती है।
लेकिन जब लाभ की चाहत लोभ का रूप ले लेती है,
तो मनुष्य की बुद्धि भ्रमित हो जाती है,
और वही भ्रम उसे विनाश की ओर ले जाता है।
प्रकृति सहनशील ज़रूर है, पर अनंत नहीं।
जब उसकी सीमाएँ टूटती हैं,
वह अपने प्रचंड और प्रलयंकारी रूप में प्रकट होती है।
क्या हिमालय का यह जल-प्रलय
हमारी असंतुलित और स्वार्थी वन-कटाई का परिणाम नहीं है?


जीवन द्वीप नहीं होता है,
वो होता है, अन्तर्सम्बन्ध!
ना परावलम्बन, ना स्वावलम्बन,
वो है, परस्पर-आलम्बन!
सब गुुँथा है, एक दूसरे के साथ-
वृक्ष और मनुष्य, मनुष्य और पशु,
पशु-पक्षी, सूरज, चाँद और सागर,
सब गुुँथा है, एक-दूसरे के साथ!

अकल्पनीय है जीना, वनों के बिना-

वे रोकते हैं पहाड़ से बहती नदियों को
प्रचंड वेग से बहने से।
उतना भेजते हैं-
जो आत्मसात कर पाये सागर,
और उतना रोकते हैं-
जो आत्मसात कर पाये नगर!

हमारे फेफड़े लेते हैं हर वक्त
सिर्फ धन्यवाद की साँसे।
ये वन देते हैं हमारे लायक हवा,
और सोखते है जो नहीं है हमारे लिये।
संतुलित करते हैं वायुमंडल की पर्त,
और संतुलित करते हैं तापक्रम-वातावरण का!

अतिताप से पिघलेगी बर्फ,
और बढ़ जायेगा सागर…
कई हाथ….
और डुबो देगा-
न्यूयॉर्क, लन्दन, सैन फ्रांसिस्को, एस्टर्डम, 
बम्बई और कलकत्ता….!

भ्रमित जन काटते जा रहे हैें वन;
और बिना वन-
ना रहेगा जन
ना रहेगा जीवन…!