लिख दूँ कोई कोई शेर,
कोई नगमा तुझ पर…!
बाखुदा वो अल्फ़ाज़ ही नहीं,
जो तेरे हुस्न की वज़ाहत कर दें…!
लिखने को मन की बातों को,
बैठा उदित चंद्र बेला को;
सोच रहा में पद्य विषय,
और मिले नहीं इस मन व्याकुल को।
चित्र अनन्त आगे आँखो के,
चयन करूँ किसको लिखने के;
भ्रमित हुआ भ्रम जाल में आकर,
विषय नहीं, विषयों में फँस के।
धुंध छटा इक आकृति आई,
मीन की आँखों की परछाई;
जल को भेद जो अंबर देखे,
किन्तु नहीं मन से टकराई।
अम्बर पर कुछ श्याम घटाएँ,
रवि को ढँक, मद में लहराऐं;
बरखा की मीठी फुहार भी,
मन को मेरे पार न पाए।
पूर्ण चन्द्र सुन्दरता भारी,
कोमल शशिकिरण मनहारी;
शीतलता वायु में बहकर,
हरने की कोशिश में हारी।
बलखाती सागर की लहरें,
लगा रहीं आँखो के फेरे;
सागर को वो पार करें,
पर मन पर वो कुछ देर ही ठहरे।
कोयल की इक कूक सुरीली,
गर्वरहित खुशियों की बोली;
तैर हवा में गूँज उठी वो,
छोड़ हृदय सब जग में फैली।
अब धरती की ओर थे नयन,
करती जग का भार जो वहन;
अचरज से नैना फटते थे,
किन्तु मगन था कहीं और मन।
अहा। हृदय में ज्वार आ गया,
विषय-वस्तु मन-द्वार आ गया;
कविता जिस पर लिख पाऊँ मैं,
मन में एक विचार आ गया।
दो चक्षु जो मीन से सुन्दर,
केश देख लज्जाए अम्बर;
शशि से उज्जवल मुखड़ा जिसका,
प्रिया मेरी बैठी मन-अन्तर।
कंठ सुरीला मौन हो कोयल,
सहन शक्ति हो धरा भी घायल;
सागर की लहरों से बढ़कर,
लहराए उसका मन आँचल।
सोच रहा अब लिखूँ कविता,
शब्दकोष पर पाऊँ रीता;
उसकी सुन्दरता वर्णित,
कर पाए आए कोई रचयिता।
नहीं मैं कुछ भी लिख पाऊँगा,
लिखूँ तनिक ना छू पाऊँगा;
त्रुटि नहीं मेरी है किन्तु,
क्षमा सभी से मैं चाहूँगा,
क्षमा सभी से मैं चाहूँगा।