गंतव्य जब कहीं दूर-दूर भी नज़र नहीं आता,
तब भटका सा अनुभव करता है
जीवन की राह पर चलता राही…!
और फिर उसी राह से प्रश्न करता है
जिस पर विश्वास करता वो इतनी दूर चला आया…!
पर क्या ये प्रश्न, ये शिकायतें बाहर की राह से हैं,
या हैं ये प्रश्न अपने आप से,
अपने ही भीतर बैठी आत्मा से…!
और यदि ये प्रश्न अपने ही अंतर से हैं
तो क्या इस राह पर बढ़ते-रुकते
कभी इन प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं,
या रह जाते है ये अनुत्तरित ही…
हमेशा के लिए… ?!
ऐ राह मुझे बतला दे तू,
क्यूँ तुझ पे चलता आया मैं?
क्यूँ नहीं दूसरी राह चला,
क्यूँ तुझसे छलता आया मैं?
मुझको अब याद नहीं पड़ता,
गन्तव्य मेरा क्या निश्चित था,
तू ही बतला हे मुझे राह,
किस कार्यसृजन मैं चिन्तित था?!
मैं चौराहों पर ठिठक-ठिठक,
क्या सोच रहा था बता मुझे?!
वो मोड़ क्यूँ नहीं मुड़ा बता,
जो मोड़ दूसरी ओर चले?!
कुछ और कहानी होती तब,
कुछ और सोचता तब शायद,
वो मार्ग कठिनतर या होते,
या होते लक्ष्य सुलभ शायद!
क्यूँ लक्ष्य नहीं दिखता कोई,
क्या राह करवटें बदल गई?!
या मैं ही भूल गया मग को,
या लक्ष्य दिशा ही बदल गई?!
कुछ बता मुझे ओ राह मेरी,
उद्देश्य मेरा यूँ चलने का,
उद्देश्यहीन या मैं चलता,
बतला तब दण्ड 'कु'-चलने का।
मैं खड़ा हुआ अब इस पथ पर,
तब तक पग नहीं बढ़ाऊँगा,
जो लक्ष्य नहीं दिखता कोई
उत्तर तेरा पा जाऊँगा।
मैं क्रोधित नहीं विवश हूँ मैं,
मैं बिन शंका के चला गया,
अब चलते-चलते हार गया,
मैं थका गया, मैं ठगा गया।
ऐ राह मैं तुझसे हार गया,
मैं तुझे बीच में छोड़ रहा,
या चलता हूँ बिन देख तुझे,
बिन सोचे क्या गन्तव्य रहा।
तब नहीं शिकायत होगी कुछ,
ना प्रश्न कभी मैं पूछूँगा,
बतला देगी, बस यही आस,
जब लक्ष्य निकट मैं पहुंचूँगा।