हर कण अस्तित्व का महकाता है अपनी ही खुशबू,
दिखाता है अपना ही रंग और गाता है अपना ही गीत।
और उस महक से महक उठता है संपूर्ण अस्तित्व,
उस रंग से भर जाता है कुदरत का हर इक दृश्य
और उस गीत से गूंज उठता है अनहद का हर इक नाद।
अस्तित्व हर कण से खेलता है नए खेल,
रचता है नया संगीत और हो जाता है नवीन…
हर पल, हर लम्हा…।
इस खेल में हर कण जीता है अपना भी जीवन और
खिला देता न जाने कितने असीम कण… जाने या अनजाने!
पतझड़ के विषाद क्षणों में,
कहता इक पत्ता यूँ तने से,
“दुःखी न हो ओ मेरे भाई”
पूछा यूँ “क्यूँ फूटी रुलाई?”
बहुत उदास तना, मुँह खोला,
बहुत निराश स्वरों में बोला,
“कई बरस पहले की बात,
पहली बार जब हुआ अ-पात,
दुःखी हुआ था तब भी ऐसे,
किया प्रलाप था स्त्री जैसे।
तब सोचा था मैंने यार,
‘जाने ना दूँगा अगली बार’।
“अगली बार भी ये मौसम आया,
पत्तों को आकर बहकाया।
पत्ते बहक-बहक जाते थे,
साथ मेरा वो ठुकराते थे।
प्यार किया, बहुत समझाया,
पर उनकी कुछ समझ न आया।
एक-के-बाद एक वो जाते,
छोड़ अकेला थे तरसाते।
और अंत में वह दिन आया,
धरा पे केवल मेरी छाया।
‘बीते क्षण-क्षण, जैसे दिन भर,
बीता किसी तरह माह भर।
हर इक पत्ता याद में आए,
याद, याद कर रोना आए।
मुश्किल से मन को समझाया,
कठिनाई से समय बिताया,
कई बरस में सावन आया,
साथ में अपने पत्ते लाया।
“स्वागत कर, दिन भर ना थकता,
पर मन में रहता कुछ खटका,
‘क्या फिर वो मौसम आएगा,
साथ में पत्ते ले जाएगा?’
‘नहीं…’ नहीं मैं सोच ना पाता,
मन को अपने काम सुझाता।
“दिन निकले जैसे हों पल-छिन,
इसी तरह बीते सारे दिन।
फिर वह निर्दयी मौसम आया,
आकर इतिहास दोहराया,
और एक दिन ऐसा आया,
कुछ पत्ते थे मेरी काया।
धीरे से वो भी जाते थे,
मेरे आँसू भर आते थे।
“प्रश्न किया पत्तों से इक दिन
‘रह लेते हो तुम मेरे बिन!
सावन के संग तुम आते हो,
भोजन मेरा तुम लाते हो,
होता जब कुछ करने लायक,
छोड़ अकेला यूँ जाते हो।
मुझको यूँ क्यूँ तड़पाते हो,
इस मौसम से क्यूँ डरपाते हो;
दूर यूँ मुझसे तुम जाकर के,
और काम कुछ कर पाते हो?!’
“सहम-सहम वो पत्ते बोले,
धीरे-धीरे हौले-हौले,
‘गिर जाते हैं हवा से उड़कर,
फिर जाते हैं धरा के भीतर,
भीतर हम सबकी जड़ें समाती,
देख हमें बहुत हर्षाती,
पानी के संग हमको पाती,
और तुम्हे भोजन करवाती।
भोजन से ऊँचे होते हो,
आसमान को तुम छूते हो।’
“उन पत्तों की बात को सुनकर,
उनके जाने के राज़ को सुनकर,
मेरा मन दु:ख से भर आया,
अपने आप से मैं शरमाया।
तब से अब तक इस मौसम में,
रोया हूँ अपने-अपने में।
“तुम सब इतना कष्ट उठाते,
तब मुझको तुम उठा हो पाते,
काम नहीं कुछ आ पाता हूँ,
मन को नहीं समझा पाता हूँ।
यही व्यथा है मेरी भाई,
इसी वजह से फूटी रुलाई।”
सुनी बात पत्ता मुसकाया,
तने को हौले से समझाया,
“जग में जो भी जीवन पाता,
अपना वो कर्तव्य निभाता।
सही बात तुमने है जानी,
जाकर तुमको देते सानी।
पर क्या तुमने ये सोचा है,
तुम बिन मेरा जीवन क्या है!
नहीं यदि तुम ऊपर होते,
क्या हम सबके जीवन होते!
तुम हम सबके पिता समान,
तुम पर निर्भर मेरी जान।
आगे से इस तरह ना सोचो,
अब तुम अपने आँसू पोंछो।
जाने की अब बारी आई,
हंस कर दो तुम मुझे विदाई।”
यह कह कर के पत्ता गिरता,
उसके ऊपर आँसू पड़ता;
तने का आँसू है ये भाई,
खुशी का है, ये नहीं रुलाई!