माँ सिर्फ एक लफ्ज़, एक संबंध नहीं,
बल्कि है एक समूचा अस्तित्व
जिसकी गोद में बैठते या जिसके आकाश
में विचरते हम अनुभव करते हैं जीवन का अद्भुत
सत्य, सौंदर्य और आनंद…!
तुम प्राण हो-
और बहती हो बन कर
जीवन की निर्मल धारा!
तुम आकाश हो-
और रहती हो सदा अडिग,
अटल, और निश्चल,
जीवन के तीव्र अंधड़ों में भी
रहती हो सदा स्थिर।
तुम सूर्य हो-
और फैलाती हो अपना
दिव्य उजियारा,
चारों दिशाओं के सदृश
अपने ही चतुर्अंशो के
चिरप्रतीक्षारत् आँगनों में।
तुम चाँद हो-
और दे जाती हो
अंधियारी रातों में
उजियारे की पूर्णिमामयी चाँदनी;
बदल कर रूप अपना
फिर सिखाती हो
अमावस्सीय अंधेरे का मर्म।
तुम तारा हो ध्रुव-
और सदा हो स्थिर उस
ऊंचे आकाश में,
कि कहीं जो भूलें, भटकें…
तो देख कर तुम्हें पा लें
हम फिर अपनी सही राह,
और चल पड़ें बस एक
उसी राह पर जो ले जाती है,
जहां है स्थिर सत्य का
एकमेव उत्तर
जो बसता है सभी के प्राणों में!
और तुम वो प्राण हो माँ-
और बसती हो
हम सब के भीतर
बनकर जीवन की
निर्मल धारा…!