मेरे गुरु


मैं भागता हूँ बार-बार
और तुम मुझे खींच लाते हो
उसी खेल में हर बार!

मैं रोता हूँ और तुम पोंछते हो मेरे आँसू, 
अपनी स्नेहिल अँगुलियों से!
पुचकार कर तुम मुझे समझाते हो
इस क्रीड़ा में रहने का अर्थ
और इस से भागने की निरर्थकता को।

तुम मेरे सिर को सहलाते हो
और कितने जतन से संवारते हो
मेरे अंतर को।

तुम डपटते हो,
मुझे अपनी महीन करुणा से
और फिर बिठा लेते हो अपनी गोद में!

तुम बहुत प्यारे हो प्रभु,
बहुत प्यारे….!!

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