मन मंथन

ये व्यग्रता, ये आकुलता, और ये विचारों का सैलाब!
मगर इस सैलाब में
कहाँ है उस भीगेपन का अहसास,
और उस भीगने से मिली तृप्ति।
कहीं कुछ और है इस सैलाब से जुदा…
वो क्या है, कहाँ है और कैसा है उसका रूप…?!


मन चिंतित हो कहाँ पहुंचता? 
वहीं जहाँ हृदय में हलचल;
प्रश्नों का अम्बार लगा है, 
उत्तर का घनघोर मरुस्थल।

व्यथित हृदय उत्तर पाने को, 
प्रश्नों की तृष्णा स्वाभाविक;
रेणु-भँवर में उलझ-उलझ कर,
भयाक्रांत मन श्रमजल स्रावित।

उत्तर की मृगतृष्णा, मरु में,
मन के पग द्रुततम बढ़ते हैं;
दूरी के स्थिर रहने पर,
मन-मृग तड़प-तड़प मरते हैं।

मृगतृष्णा और रेणु-भँवर भी,
वृहद मरुस्थल में स्वाभाविक,
इन मिथ्या लोभों में पड़‌कर,
मन के दुःख होऐं एकाधिक।

यही बात उपजी मन-अन्तर,
व्यापक मन-मन्थन आवश्यक;
व्यथा हृदय और प्यास प्रश्न की,
बुझे तभी, जब मन हो पावन।

मन मंथन कर कहाँ पहुँचता?
वहीं जहाँ हृदय हो निश्चल;
प्रश्नों का अम्बार व्यवस्थित,
उत्तर का उन्मुक्त सरितजल।।

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