बादलों की गरजना की
ढोल की-सी ताल पर,
पवन संगत कर रही है
तरुवरों से वाद्य पर;
पाँव धरती पर पड़ें,
उठते मधुर झंकार कर,
आज अम्बर नाचता है,
घुंघरुओं को बाँध कर।
सूर्य की किरणें विवश,
क्रोधित गगन के नाच पर,
नाम मिटता दिख रहा,
अपना नदी की धार पर;
चन्द्र भी दिखता सशंकित,
रात्रि के दरबार पर,
आज अम्बर नाचता है,
घुंघरुओं को बाँध कर।
बादलों की ढोलकें अब
बज रहीं चमकार कर,
टूटते तरु-वाद्य,
नूपुर-चाप से अनुनाद कर;
सिंधु लहरें तालियाँ-सी
पीटती तट पारकर,
आज अम्बर नाचता है,
घुंघरुओं को बाँध कर।
आज ये डिगता नहीं,
रुकता नहीं थक-हारकर,
घुंघरुओं की चाप बढ़ती
जा रही हर थाप पर;
आर्ततम होती हुई,
धरती की आकुल तान पर,
आज अम्बर नाचता है,
घुंघरुओं को बाँध कर।