मेरा परिचय

एक व्यक्ति है और उसकी एक यात्रा है, उसके साथ-साथ एक और यात्रा भी है- उसकी अपनी अभिव्यक्ति की जो उसके साथ-साथ चलती है। इस अभिव्यक्ति के कई माध्यम हो सकते हैं जैसे चित्र, गीत, अभिनय, नृत्य, या कोई अन्य सृजनात्मक माध्यम!

मेरी अभिव्यक्ति का माध्यम मेरी कविताएं हैं, जो कभी भीतर बह रहे शब्दों के लय-ताल से सीधे प्रस्फुटित हुईं और कभी स्वयं को अपनी डायरी के साथ साझा करते बह निकलीं। मेरी और मेरी कविता की यात्रा साथ ही चली है। यह यात्रा कुछ पड़ावों पर ज़रूर कहीं अव्यक्त-सी रही, किन्तु फिर कहीं अपनी चुप को तोड़ मेरी आवाज़ बन मेरे साथ चल पड़ी।

कविता की इस यात्रा के ज़रिए मैं खुद का सफ़रनामा बुनता हूं, और पिरोता हूं जिंदगी की एक माला। मेरी इन कविताओं में जीवन के सत्य को जानने की चेष्टा से उपजे संघर्ष की अभिव्यक्ति है; खोज की इस यात्रा में अनुभव किये आनन्द की मिठास है; प्रेम, संदेह, विश्वास, तड़प और धैर्य के भावों को अभिव्यक्त करते गीत हैं जो सृजित हैं- ‘अनहद की कलम से’!

पेशे से एक इंजीनियर और बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन शिक्षित व्यक्ति का 34 वर्ष कॉरपोरेट की दुनिया में काम करते हुए अपने शब्दों और उनकी लय को संभाले रखना और कागज़ पर उकेर पाना कई बार बहुत मुश्किल-सा हो जाता है। किंतु हर आत्मा की अपनी यात्रा है और वो अपने आप अपने स्वरूप को प्रकट करने की सतत चेष्टा करती ही रहती है। इस भीतरी भाव ने शायद मेरे कवि को जीवित रखा और मैं अपनी कलम से कुछ छंद, कुछ गीत रच पाया! आत्मा की इस सतत चेष्टा को सद्गुरू ओशो के नव–संन्यास ने नव–रूप दिया और ज्ञानी पुरुष दादा भगवान के ज्ञान ने अंतःप्रेरणा दी।

आत्मा की यात्रा के अतिरिक्त कुछ और भी महत्वपूर्ण है जो इस यात्रा को ऊर्जा देता है- वो हमारे पूर्वजों से चली आ रही आनुवांशिकता और परंपरा की यात्रा है। मेरा सौभाग्य है कि मैं साहित्य की एक अनुपम और सुंदर धारा से संबद्ध हूँ।

हमारे पूर्वज पंडित श्री लेखराज मिश्र (प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘गंगाभरन’ और अनेक रचनाओं के रचयिता), उनके पौत्र पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र जी (हमारे पूज्य परबाबा) जो १९२८ में प्रसिद्ध हिंदी पत्रिका माधुरी के संपादक रहे (जिसमें मुंशी प्रेमचन्द जी भी उनके साथ में संपादक थे), हिंदी साहित्य में अपने अतुलनीय योगदान के लिए जाने जाते हैं। पंडित कृष्ण बिहारी मिश्र जी ने १९४० में सीतापुर, उ.प्र. में राजर्षी पुरूषोतम दास टंडन जी की प्रेरणा से ‘हिंदी सभा’ की स्थापना की, जो कई अन्य मूर्धन्य साहित्यकारों की बैठकों का गढ़ रही जिनमें श्री जयशंकर प्रसाद, श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ भी शामिल थे।

पंडित मिश्र की अनेक रचनाओं में ‘देव और बिहारी’, ‘मतिराम ग्रंथावली’ बहुत प्रसिद्ध हैं। मिश्र परिवार के उस दौर के लगभग सभी सदस्य हिंदी साहित्य में अपने योगदान के लिए जाने जाते हैं। पूज्य बाबा पंडित श्री नवल किशोर मिश्र अपने तकनीकी कौशल के साथ ही अपनी काव्य रचनाओं के लिए जाने जाते रहे। मैं हृदय से अपने आनुवंशिक, मानसिक, आत्मिक और आध्यात्मिक संबंधों और सूत्रों का कृतज्ञतापूर्वक वंदन करता हूँ।

-सुहास मिश्र ’गितेन’