ये उत्सव, ये पर्व, ये त्यौहार…!
ये प्रकृति हंसती है, झूमती है, नाचती है,
अपने ही ढंग से…!
ये प्रेम, ये ममता और ये अपनापन…!
ये प्रकृति जताती है, निभाती है, फुसफुसाती है
अपने ही अंदाज़ मे …!
तृप्त नयन मेरे मैं देखूँ ,
वृहद एक परिवार,
मन गदगद हो जाए देख
उनका आपस में प्यार;
बहुत पुराना उसी जगह पर
बढ़ा रखा आकार,
हरा-भरा वह वृक्ष आम का
प्रकृति का उपहार।
बहुत बरस पहले धरती ने
ब्याह जमाया एक,
‘तना’ था वर का नाम और
‘जड़’ वधु बनी थी नेक;
कुछ महिनों में घर उनके
थे बच्चे हुए अनेक,
कहा पुत्र को ‘शाख’
और ‘पत्ती’ पुत्री को देख।
शीत, शिशिर ऋतुओं में मनता
आम-वृक्ष त्योहार,
सभी पत्तियाँ सजती और
करती सोलह शृंगार;
सुख-दुख मिश्रित भाव,
विदा ले जाती वो ससुराल,
तब शाख रचाते ब्याह,
जिन्हे करते वो मन से प्यार।
शाख, पात के प्रेम से
बौरा जाता घर परिवार,
नाच पवन की धुन पर पत्ती
संगत को तैयार;
द्रुततम पहुँचे लय और
जब नूपुर की झंकार,
बौरों से चुपचाप निकलता,
नया आम संसार।
पवन बधाई देती है,
कोयल के गीत सुहाने,
लगी तेज सूरज की किरणें
अमिया को सहलाने;
प्रेम सभी का पाकर धीरे
होते आम सयाने,
पके आम धरती पर जाते,
अपना वंश बढ़ाने।
लेता जीवन आम-वृक्ष का
इसी तरह विस्तार,
द्वेष, क्लेश तो लेश नहीं,
इनके आँगन के द्वार;
प्रेमभाव से करें किसी भी
कटुता का संहार,
इसी प्रेम के संग जिए
जाते ये बरस हज़ार।