“कुछ झाँकता है उस धुंधलके से…!
ओह! वो तो दिखता है आने वाला मेरा ही कल…!”
“क्या वो जो तुमने ही लिखा था
उस बीते हुए कल के हर बीतते लम्हे के संग…;
और जो लिखते हो आज भी…
अभी इसी वक़्त…जाने ,अनजाने-
…अपनी तमाम ख्वाहिशों की लम्बी फेहरिस्त और
औरों को दिए- खुशी और दर्द के भुला दिए पल…?!”
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
वो ही राह-चाल का संगम,
वो ही स्वर, वो ही सुर-सरगम,
वो ही घड़ी-दिशा का मेला,
वो ही हार-विजय का परचम;
नक्षत्रों का लिखा हुआ था,
बस तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
तुमने कितनी ऐड़ लगायी,
घोड़ी सरपट ही दौड़ाई,
चुन कर अपने घुड़सालों से,
वेगवती तुमने बुलवाई;
यम का काल-देश निश्चित था,
बस तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
महलों को मजबूत बनाया,
और सिपाही ढेर लगाया,
शिखर-कक्ष में सेज सजाकर,
मौत को समझे बड़ा छकाया;
छिपा फूल में काल, सर्प बन,
बस तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
राजा होगा या वैरागी,
खूब बनाया भोग-विलासी,
बाज़ारों से रखा अनछुआ,
छोड़ा राज बना संन्यासी;
महाबुद्ध उसको होना था,
बस तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
पर निश्चित ये कौन कर रहा,
कौन भाग्य की लेख लिख रहा,
क्या सृष्टि एक रंगमंच है,
कठपुतली का खेल चल रहा?!
तुमने बहुत बार ये माना,
जो तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
वो ही चाह-काल का संगम;
जो ही कर, वो ही फल हरदम,
वो ही कर्म-काम का मेला,
वो ही बीज-फूल का बंधन;
जो बोया खिलना निश्चित था,
बस तुमको मालूम नहीं था!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
यही कर्म, नक्षत्र बनाते;
यही काम, यमराज बुलाते,
चाह यही संन्यासी जनती,
काल, सर्प का रूप बनाते;
नक्षत्रों-यम-देश-काल का;
कर्म-काम से सृजन हुआ है!
जो निश्चित था वही हुआ है,
बस तुमको मालूम नहीं था।
जीवन का मूल बताती अत्यंत सुंदर रचना।
साधु
बहुत ही सुंदर, अप्रतिम