आम्रवृक्ष

ये उत्सव, ये पर्व, ये त्यौहार…!ये प्रकृति हंसती है, झूमती है, नाचती है, अपने ही ढंग से…!ये प्रेम, ये ममता और ये अपनापन…!ये प्रकृति जताती है, निभाती है, फुसफुसाती हैअपने …

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दीपक

होम कर अपना अस्तित्व तुम दे जाते हो रात के गहन अंधकार में उजियारे की रोशनी …! मौन… निस्वार्थ…! दीपक तुम कितने प्रभावशाली हो,हो नन्हे पर कितने बलशाली हो;मैं अचरज …

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कूद पड़ो

भीतर कुछ है जो तुमसे कुछ कहना चाहता है… दिखाना चाहता है तुम्हे तुम्हारा रास्ता…! उसे सुनो, वो तुम्हें जानता है… तुम्हारे अंतरतम को भी वो खूब पहचानता है। उठो, …

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तभी ये अपना व्योम रचेगा

उस पोखर पर गिरते कंकड़ से उसके अस्तित्व का एक अंश भर उठता है तमाम तरंगों की हुलक से…। पर मैं तो उस हुलक से बस कुछ देर तरंगित होता …

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