जीने की ज़िद
मुझे जीने की ज़िद चाहिये।मैं अस्वीकार करता हूँ मृत्यु के हर पहर को,वरण कर उसके ही जीव-स्वरूप को!मैं असाधारण नहीं, अति-साधारण होना चाहता हूँ,कि समा सकूँ गौरेया के नन्हे-से घोसले …
मुझे जीने की ज़िद चाहिये।मैं अस्वीकार करता हूँ मृत्यु के हर पहर को,वरण कर उसके ही जीव-स्वरूप को!मैं असाधारण नहीं, अति-साधारण होना चाहता हूँ,कि समा सकूँ गौरेया के नन्हे-से घोसले …
गंतव्य जब कहीं दूर-दूर भी नज़र नहीं आता, तब भटका सा अनुभव करता है जीवन की राह पर चलता राही…! और फिर उसी राह से प्रश्न करता है जिस पर …
तृप्ति…!क्या छिपी है अकूट धन संपदा और उसके आडंबर में या मिल जाती है किसी कोमल हृदय के स्पर्श मात्र से…! था किवाड़ खुल रहा,खुल रहा चूँ-चूँ कर,हल्के से धक्के …
जीना तो होता है ‘आज’और अभी के इस नित्य बहते पल में …! मगर इस ‘आज’ को तो बोया था ‘बीते हुए किसी कल’ में …!और जो ‘आने वाला कल’ …