ज्ञात नहीं कब कौन घड़ी


नहीं द्वार पर थाप पड़ी,
आई नहीं पदचाप कहीं;
हौले से दिल में आ बैठा,
ज्ञात नहीं कब कौन घड़ी।

मित्रवृत्त से तुष्ट हुआ,
नहीं कोई था कष्ट हुआ;
नहीं अधिक मित्रों की चाहत, 
तब भी दिल आकृष्ट हुआ।

सावन में ज्यों घास हरी, 
बढ़ती, वैसी प्रीत बढ़ी;
साथ समय जो अधिक मिला
तो प्रीत हो गई और हरी।

पीत सर्व संसार हुआ, 
जब वसन्त त्योहार हुआ;
गीत गाए मीठी बयार में, 
मैत्री का विस्तार हुआ।

जीवन में अनमोल कड़ी,
और जुड़ी, फिर और बढ़ी;
कब अटूट हो गई हृदय को,
ज्ञात नहीं कब कौन घड़ी।

संघर्षो में साथ हुआ,
नहीं कोई आघात हुआ;
समय बिताया हंसते-हंसते,
कठिन काल आसान हुआ।

पवन-मेघ की जोड़ चली, 
पानी की लेकर झोली;
जहाँ दिखी बरसात की चाहत,
वहीं लगा ही एक झड़ी।

बोझिल जब संसार हुआ, 
चौतरफा अंधकार हुआ;
सुनी मित्र की मीठी वाणी, 
हर मुश्किल का द्वार हुआ। 

बहुत मित्रता जोर चढ़ी,
सुन्दरतम स्नेह भरी;
लगे स्वर्ग में गढ़ी गई पर,
ज्ञात नहीं कब कौन घड़ी।

रेखाओं का खेल हुआ,
भाग्य बड़ा बेमेल हुआ;
मेघ, पवन को छोड़ चले
और वेग पवन का ढेर हुआ।

“पवन बहुत रोए ओ मेघा,
कहाँ जा रहे छोड़ मुझे,’
विवश मेघ  जाना मजबूरी, 
कहे, ‘मेरा भी हृदय बुझे।’
मेघा की मुश्किल वो जाने, 
नहीं रोक पाई उसको;
समझ रही जीवन की रीत को, 
पर ना पचा पाई  सच को!

विदा घड़ी संताप भरी,
आँख अश्रु से भरी भरी;
मिलना होगा अब जीवन में
ज्ञात नहीं कब कौन घड़ी।