कूद पड़ो


या शान्त सगर या क्रूर भँवर में,
कूद पड़ो- तन में भर-भर,
मन में भर-भरकर,
कूट-कूट कर जीने की अमृत इच्छा को।
कूद पड़ो,
उस पार निकलना हाथ तुम्हारे,
यही सोचकर,
कूद पड़ो
या शांत सगर या क्रूर भँवर में।

हाथों की शक्ति को आँको-
झाँको मन के भीतर और
अन्तरतम मन में,
ढूंढ निकालो- छुपे हुए मन के मोती को,
जगा-उठा दो सोये हुए मन के तारो कों,
-झंकृत कर दो…
बजने दो क्या लय ना देखो;
सुर को छोड़ो…
जो सुर हो तुम उसमें बस इक ताल लगाकर,
कूद पड़ो
या शांत सगर या क्रूर भँवर में!

“क्यूँ कूदें?”
-यह प्रश्न निरर्थक तट पर आकर, 
यह तो सब पहिले ही तुमने सोच लिया था,
भूल गये अब तट पर आकर,
-तुम घबराकर,
पाँव तुम्हारे कहते हैं-
“चल पलट चलाचल”।

“नहीं जाओ”
तुम वापस जाकर फिर सोचोगे,
फिर आओगे तट तक,
तुम फिर-फिर सोचोगे,
सोच नहीं, तुमको
साहस की तनिक ज़रूरत,
उसको तुम अंतर से पाकर,
कूद पड़ो
या शान्त सगर या क्रूर भँवर में।

इन तूफानों को देख बड़ा तुम डर जाते हो,
और प्रतीक्षा करते हो
इनके थमने की,
और थमे कुछ तब कहते हो,
“और थमे कुछ”;
इस और-और के थमने में
खुद थम जाते हो।

तूफान बनो-
इन तूफानों को ही डरपा दो,
या फिर इस थमने, बढ़ने को ही झुठला दो,
इसके तूफान तुम्हे जैसे यूँ थमा रहे हैं,
रोक लगा दो इन पर तुम
मन-शंखनाद कर,
कूद पड़ो
या शांत सगर या क्रूर भँवर में।

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