कभी-कभी जिंदगी में हम अपने दुख में इतने डूब जाते हैं कि उसके सिवा और कुछ नज़र ही नहीं आता…!
ना कोई दोस्त, ना हमदर्द… !
कोई मित्र जब अपने कोमल,भावुक शब्दों से झकझोरता है तब आता है होश कि इस दुख के सिवा भी है ज़िंदगी…! हैं वो दोस्त जिनके प्यार भरे अल्फ़ाज़ मरहम बन भर देते हैं वो गहरे दुख के ज़ख्म …!
वो दोस्त जो खुद परेशां हैं अपनी ज़िंदगी के दुखों से…! देखते हैं इक उम्मीद से कि भर सकें उनके भी ज़ख्म, हमारे प्यार भरे अल्फ़ाज़ों से …!

प्रिय विजय,
ढेरों प्यार,
स्वार्थ-लिप्त हो मित्र तुम्हारा,
कैसे सोच तुम्हारा आए,
जब संभावित अर्थ प्राप्ति हो,
तभी नयन शायद खुल पाएँ;
स्वयं पीर जब लगे कष्टतम,
दर्द अन्य के लघु हो जाएँ,
इसी पीर की जड़ी मिले जब,
मित्र दर्द अनुभव हो पाए।
नहीं मित्र ना कभी मैं ऐसा,
फिर ये सोच कहाँ क्यों आया?!
निश्चित ही तेरा अपराधी,
मुझे विचार तभी तो आया!
"दर्द, पीर स्वयं के चौगुन"-
सुप्त हृदय में शायद छाया।
"पूर्ति स्वार्थ की" यही प्रमुख है,
मन को डसे सुनहरी माया।
निकट हृदय तो अभी निरंतर,
ना प्रत्यक्ष सामना होता,
सुख-दु:ख की बातें करने को,
मित्र, सखा अनुपस्थित होता।
पत्रों में लिखता हूँ मन को,
मन जानें में असफल होता,
यही बात, पाती ना भेजूूँ,
यही बात मन हरपल रोता।
पर तेरी पाती ने मीता,
हृदय द्वार अब खोल दिए हैं,
थोड़े से शब्दों ने तेरे,
बोल बहुत से बोल दिए हैं।
हीन-बुद्धि या बुद्धि-हीन था,
क्लेश तुझे तो बहुत दिए हैं।
प्रतिमाओं में एक मूर्ति हम,
भाग्यहीन बन खड़े हुए हैं।
खुले नयन- है ये आवश्यक,
भोर बड़ी भोली होती है,
राह प्रात बेला में भूलें,
साँझ तलक सीमा होती है।
अर्थ, शब्द के तुम्ही लगा लो,
भूल कभी सब से होती है,
भूल, भूल कर भूल पुनः हो,
वही भूल अक्षम्य होती है।
क्यों ना तुम फिर से लिख डालो,
पत्र पढ़ूँ, पुलकित हो रहूँ,
सरित-सरित चित्त, द्रवित निगाहें,
खुशियों से सज्जित हो रहूँ।
-सुहास