मिलन की आस ही कुछ ऐसी है कि
मन सब भूल बस अपने प्रिय की ही याद और
उसका ही इंतज़ार करता रहता है!
और जो ना मिल पाए… तो दिल तड़प उठता है…
कभी डर जाता है किसी अनहोनी की आशंका से…!
…पर जब सारी उम्मीदें छोड़ दी हों और
फिर आ जाए मीत अचानक ही
बिल्कुल सामने…!!!
विरल-प्राय नीर उस पोखर में बाग के,
मंद-मंद पवन से डरता कंप जाता था;
बैठा मैं व्याकुल सा, चाहत ‘प्रियभानु’ की,
मन-मन निराशा से, डरता कंप जाता था।
ऊँच पे आकाश, छवि काली घटाओं की,
मद-मद मदमाती हो प्यार में उन्मादी;
सपने सुहावने देखूँ खुली आँखों से,
बादल की गरजन से, डरता कंप जाता था।
आई पदचाप, करूँ कोशिश मैं सुनने की,
करता अब ध्यान जहाँ ठानी थी मिलने की;
खरहे के प्राण के पीछे पड़े हुए,
श्वानों को देख के, डरता कंप जाता था।
“आया ना मीत मेरा” गायक ने तान दी,
चौंका! मेरे भावों को किसने आवाज़ दी;
था इक भिखारी, गाना वो गा रहा,
आगे के बोलों से, डरता कंप जाता था।
सन्ध्या की बेला, लालिमा आकाश में,
चहचहाती चिड़ियाँ, उड़ती अब बाग से;
इंगित करे जो ये, मन वो नकारे,
सूरज के डूबने से, डरता कंप जाता था।
छाया अंधियारा अब दूर-दूर देश में;
न बादल, न गरजन, न लाली अब अम्बर में;
सूरज की जगह अब चंद्र को आकाश में,
तारों के बीच देख, डरता कंप जाता था।
पग-पग बढ़ाता, लौटता निराशा में,
खोया में खरहे और गायक की तान में;
आए ना मीता पर, चिड़ियों की याद आए,
आया कोई सामने डरता कंप जाता था।
झुक झुक के आँखे धरती को छूती है,
पहचानूँ-पहचानूँ , चंदा सा मुख है ये,
आँख अविश्वास करें, होता मन गदगद,
आँखो में अश्रु, मुस्काता हँस जाता था…।