सुख और दुख, सही और गलत,
रोशनी और अंधेरा…
जीवन दो विपरीतताओं के संगम से ही पूर्ण होता है।
वस्तुतः ये विपरीतताएं, विपरीतताएं नहीं
बल्कि एक दूसरे की पूरक है। एक के बिना
दूसरे का अस्तित्व नहीं और
इनके बिना अस्तित्व का भी कैसा अस्तित्व…!
डरता है वो, रात भयानक लगती उसको,
मैं कहता कि रात बिना विश्राम नहीं है।
घुप्प अंधेरा छाया, बोला, “कितना बोझिल!”
बोल रहा मैं “ज्योति का निर्माण यहीं है।“
“उगते सूरज पर धरती क्यूँ ना रुक जाती?”
कहता, “तब ये रात कभी ना फिर आ पाती,
डरता नहीं और दिन भर में सुख से रहता,
है सबका ये अन्त, यहाँ उत्थान नहीं है।”
“रात आ गयी देर को थोड़ी हम सो जाते,
दिन रहने पर क्या सुन्दर सपने आ पाते!
जिन सपनों को मैं दिन में पूरा करता हूँ,
निशा-गर्भ से निकलें, ये निस्सार नहीं है।”
“नहीं रात से डरते, तुम दीपक सुलगाते,
क्यूँ मुझको हो छलते और खुद भी छल जाते?
अन्धकार ये मुझको तो दु:खसम लगता है।
और कहीं ना होगा, वो पाताल यहीं है।”
“चलों मानते हैं, रजनी दुखसम होती है,
पर सुख-दु:ख तो केवल अनुभूति होती है!
संघर्षों में सुख की अनुभूति पा लेता,
दिवा समय का बस केवल सम्मान वहीं है।”
“’कष्टों में सुख’ कैसी उल्टी बात कर रहे,
बिना तर्क के मुझसे तुम विवाद कर रहे;
सबको अपने अन्धकार से ये डस लेती,
कौन रात्रि का साथी, भय आक्रांत नहीं है?”
“क्यूँ इतना तुम अन्धकार से भय खाते हो?
अपनी आँखो के खुलने से डरपाते हो,
राजमहल का क्या राजा से अधिक मान है,
तारों का दरबार, चंद्र सम्राट यहीं है।
“ना कहता मैं सदा विभावरी ही रहती,
किन्तु रात्रि के बिना सृष्टि, सृष्टि ना रहती,
इसको तुम जैसे भी जीना चाहो जी लो,
प्रकृति का तो यही चक्र, सिद्धांत यही है।”
“सच कहते हो मित्र, बात अब तर्कपूर्ण है,
रात बिना ये जीवन तो सचमुच अपूर्ण है;
कोई वेदना नहीं वरन् अब सुख ही सुख है,
है सबका प्रारम्भ और उत्थान यहीं है।”