तभी ये अपना व्योम रचेगा


स्थिर पानी को ललकारो, 
तब ही ये कुछ दूर बढ़ेगा
मन को श्रान्त नहीं रहने दो, 
तभी ये अपना व्योम रचेगा।

पोखर जल स्थिर होता है, 
दूषित तभी सदा है रहता;
सरिता जल बहता है कलकल, 
शुद्ध स्वच्छ और निर्मल रहता।
नदी किनारे ना मिलने दो,
मुक्त नीर तब भाग सकेगा!

मन को श्रान्त नहीं रहने दो, 
तभी ये अपना व्योम रचेगा।

बिना विचारों का मन क्या मन!
सुप्त प्राण के सम होता है;
जो मन चिंतन में डूबा है, 
नव-चेतन का घर होता है।
द्वार हृदय के नहीं बंद हों, 
भाव प्रवेश तब संभव होगा!

मन को श्रान्त नहीं रहने दो, 
तभी ये अपना व्योम रचेगा।

धरती बिना बीज ना फलती, 
उपजाऊ चाहे हो बंजर;
उन्नति पथ पर कदम बढ़ें जब, 
बीज मनन बोएँ मन अंतर।
मनन बीज मन में सिंचित हो, 
कर्म रूप हरियाली देगा!

मन को श्रान्त नहीं रहने दो, 
तभी ये अपना व्योम रचेगा।

ध्येय प्राप्ति आवश्यक जितना, 
उतना ही चिंतन और ध्यान;
सीमा से ऊपर बहने पर, 
नदी खोए अपना सम्मान।
चिंतन उपयोगी होगा जब, 
सीमा में निर्बाध बहेगा!

मन को श्रान्त नहीं रहने दो, 
तभी ये अपना व्योम रचेगा।

2 thoughts on “तभी ये अपना व्योम रचेगा”

  1. अति सुंदर रचना
    अंतिम छंद अत्यंत सारगर्भित
    साधु

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