तृष्णा तो शान्त हुई!

तृप्ति…!
क्या छिपी है अकूट धन संपदा
और उसके आडंबर में
या मिल जाती है किसी कोमल हृदय के
स्पर्श मात्र से…!

था किवाड़ खुल रहा,
खुल रहा चूँ-चूँ कर,
हल्के से धक्के से द्वार संभल ना पाता,
गिर जाता-गिर जाता।

पर किवाड़ खुलता था,
खोले कृषकाय देह। 
कर प्रणाम अचरज से,
संकोची लोचन से;
थोड़ा सा हट जाता, 
इंगन था द्वार लाँघ,
बढ़ता में द्वार लाँघ।

छोटा सा कोष्ठ एक,
माटी का लेप-लेप।
बैठे को धरती माँ,
सोने को धरती माँ।
“कौन देश आए हो,
कौन देश जाना है?
मेरा सौभाग्य किन्तु
ना ही पहिचाना है।”

“राजा नहीं तेरा,
स्वामी नहीं तेरा,
ईश्वर का दूत नहीं,
मैं कोई भूत नहीं,
पंथी हूँ जीवन का,
जीने को निकला था।

नाम मेरा क्या करोगे?
धर्म निश्चित तुम करोगे।
अंजुलि में जल भर दो,
तृष्णा बड़ी रही,
इच्छा यही रही,
अंजुलि में जल भर दो।”

दृष्टि चंचल बड़ी,
घूमती घड़ी घड़ी,
सब कोने घूमें,
दीवालें चूमें।

तस्वीरें भगवन की,
भक्तों के भगवन की,
पुष्प-दीप सजीं थीं,
घंटी बिन बजी थी।

बर्तन दो थे यहाँ,
बर्तन दो थे वहाँ,
चूल्हा सुलगता-सा धुआँ उगलता-सा।
गुँथा हुआ आटा,
क्या कहने को खाता!

मिट्टी का मटका,
पानी का मटका,
प्यासों का मटका,
वो जल को निकाले।

पीछे को दृष्टि,
पीछे फिर भगवन,
मिट्टी के भगवन,
भक्तों के भगवन,
हार-माल पुष्पसज्जित,
उसके भी भगवन।

“अंजुलि कर दो,
जल जी भर पी लो,
तृष्णा को शान्त करो,
और अधिक पी लो।”

चेहरे पर तृप्त भाव,
तृष्णा बुझाने के,
मिट्टी के मटके से,
पानी पिलाने के।

मेरे विचित्र भाव,
तृष्णा तो शान्त हुई,
जिज्ञासा शान्त हुई,
निर्धन की कुटिया को
घूमने की इच्छा थी,
निर्धन घर घूम लिए,
निर्धन मन घूम लिए।

मिट्टी का मटका था,
मिट्टी के भगवन थे,
मिट्टी ही धरती माँ,
मिट्टी की देह-देह,
निर्धन स्नेह-मेह।

मेरे विचित्र भाव,
तृष्णा तो शान्त हुई!