हम टूटते हैं अकेले, और अकेले ही समेटते हैं
टूट कर बिखरे हुए बेशुमार टुकड़े।
बटोरते है उस धैर्य, उस आस्था और उस विश्वास के
इधर-उधर छितराए महीन कण…! लम्हा-लम्हा जोड़ते हैं
उन्हें, फिर से टूटते बिखरते देखने के लिए।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती;
आँसू तो घट का रिसना बस,
भीतर नदियाँ बहती रहती।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।
नदियों की अपनी मर्यादा,
पर कब तक तट सम्मानित हो;
मेघों की अविरल वर्षा से,
खेत, मेढ़ ना बस्ती बचती।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।
तुमने अपनी कस्तूरी से,
मुझ मृग को तो बड़ा छकाया;
तुम कहते, “कस्तूरी तेरी,
भीतर नज़रे करनी पड़तीं।”
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।
भीतर तो दरिया दल-दल-सा,
कैसे पाँव उतारूँ उसमें;
जो उतरा वो धँसता जाता,
चीख-पुकारें मचती रहती।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।
मेरी चीखों के क्रंदन से,
दल-दल द्रवित हुए लगते-से;
क्षणिक मगर बहना दिखता ये,
भ्रम नदियाँ ही बहती रहतीं।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।
भीतर-बाहर के द्वन्द्वों में,
मैं थकता-थकता जाता हूँ;
‘कस्तूरी’ मृगतृष्णा हो कर,
मृगनिष्ठा को छलती रहती।
सबकी अपनी विरह-वेदना
और स्वयं ही सहनी पड़ती।