विरह-वेदना


सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती; 
आँसू तो घट का रिसना बस, 
भीतर नदियाँ बहती रहती।

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

नदियों की अपनी मर्यादा, 
पर कब तक तट सम्मानित हो; 
मेघों की अविरल वर्षा से, 
खेत, मेढ़ ना बस्ती बचती।

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

तुमने अपनी कस्तूरी से, 
मुझ मृग को तो बड़ा छकाया; 
तुम कहते, “कस्तूरी तेरी, 
भीतर नज़रे करनी पड़तीं।” 

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

भीतर तो दरिया दल-दल-सा, 
कैसे पाँव उतारूँ उसमें;
जो उतरा वो धँसता जाता, 
चीख-पुकारें मचती रहती। 

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

मेरी चीखों के क्रंदन से,
दल-दल द्रवित हुए लगते-से; 
क्षणिक मगर बहना दिखता ये, 
भ्रम नदियाँ ही बहती रहतीं।

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

भीतर-बाहर के द्वन्द्वों  में, 
मैं थकता-थकता जाता हूँ; 
‘कस्तूरी’ मृगतृष्णा हो कर, 
मृगनिष्ठा को छलती रहती। 

सबकी अपनी विरह-वेदना 
और स्वयं ही सहनी पड़ती।

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